बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

अजात शत्रु थे पं. दीनदयाल उपाध्याय


११ फरवरी, पुण्य तिथि
पंडित दीनदयालजी उपाध्याय
कहा जाता है कुछ लोग महान पैदा होते है, कुछ लोग महानता अर्जित करते है और कुछ पर महानता थोप दी जाती है पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे महापुरुष है जिन्होंने महानता अर्जित की थी दीनदयालजी का जन्म एक साधारण परिवार मै २४ सितम्बर १९१६ को जयपुर अजमेर लें पर स्थित धनाकिया गाँव मै हुआ था जंहा उनके नाना चुन्नीलाल स्टेशन मास्टर के रूप मै कार्य कर रहे थे दीनदयाल के पिता भगवती प्रसाद मथुरा जिले के नगला चंद्रभान ग्राम के निवासी थे जब दीनदयाल की आयु वर्ष की हुई होगी उनके सर से पिता का साया उठ गया इसके साथ वे अपनी मा के साथ नाना के यहाँ गए दीनदयाल आठ वर्ष के भी हो पाये होंगे कि तभी उनकी माँ ने भी उनका साथ छोड़ दिया इसके बाद उनका लालन पालन उनके मामा राधारमन शुक्ल ने किया, जो फ्रंटियर मेल पर रेलवे गार्ड थे.
दीनदयालजी बचपन से ही कुसाग्र बुद्धि के बालक थे उन्होंने कल्याण हाई स्कूल सीकर से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और अजमेर बोर्ड की उस परीक्षा मै उन्हें प्रथम श्रेणी में सर्व प्रथम स्थान प्राप्त हुआ. उन्हें बोर्ड और स्कूल दोनों की तरफ से एक एक स्वर्ण पदक प्रदान किये गए. दो वर्ष बाद बिड़ला कॉलेज पिलानी से हायर सेकंड्री परीक्षा मै भी वे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए, और इस बार भी वे प्रथम रहे. फिर से उन्हा दो स्वर्ण पदक मिले. एक बोर्ड की और से ओर दूसरा कॉलेज की ओर से. उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से गणित विषय से बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की. पंडितजी ने आगरा के सेंटजॉन्स कॉलेज मै एम. ए. के लिए दाखिला लिया परन्तु किन्ही कारण पडी बीच मै ही छोड़ प्रयाग चले गए जहाँ से उन्होंने एल. टी. किया.
पढाई पूरी कर लेने के साथ ही उन्होंने कोई नौकरी न करने का निश्चय किया. उसके स्थान पर उन्होंने राष्ट्रिय जाग्रति एंव राष्ट्रिय एकता के राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के कार्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया. १९५१ तक वे संघ के विभिन्न पदों पर रहकर समाज चेतना का कार्य करते रहे. १९५१ में जनसंघ की स्थापना हुई तब से उन्होंने अपनी सेवाए जनसंघ को अर्पित कर दी. डॉक्टर मुखर्जी उनकी संगठन क्षमता से इतने अधिक प्रभावित हुए की कानपूर अधिवेशन के बाद उनके मुह से यही उदगार निकले कि ''यदि मेरे पास ओर दो दीनदयाल होते तो मै भारत का राजनितिक रूप बदल देता '' दुर्भाग्य से १९५३ मै डॉक्टर मुखर्जी की मृत्यु होगी और भारत के राजनितिक रूप को बदल देने का दायित्य स्वयं पंडित दीनदयाल के कंधो पर आ पड़ा. उन्होंने इस कार्य को इतने चुपचाप और विशेष ढंग से पूरा किया कि जब १९६७ के आम चुनावों के परिणाम सामने आने लगे तब देश आश्चर्यचकित रह गया. जनसंघ राजनीतिक दलों में दूसरे क्रमांक पर पंहुच गया. यद्यपि दीनदयालजी महान नेता बन गए थे परन्तु वे अपने कपडे स्वयं ही साफ़ करते थे. स्वभाव से इतने सरल थे कि जब तक उनकी बनियान कि चिद्दी चिद्दी नहीं उड़ जाती थी वे नई बनियान बनबाने के लिए तैयार नहीं होते थे. वे 'स्वदेशी' के बारे मै शोर तो नहीं मचाते थे परन्तु वे कभी भी विदेशी वास्तु नहीं खरीदते थे.
दीनदयालजी बचपन से ही कुसाग्र बुद्धि के बालक थे उन्होंने कल्याण हाई स्कूल सीकर से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और अजमेर बोर्ड की उस परीक्षा मै उन्हें प्रथम श्रेणी में सर्व प्रथम स्थान प्राप्त हुआ. उन्हें बोर्ड और स्कूल दोनों की तरफ से एक एक स्वर्ण पदक प्रदान किये गए. दो वर्ष बाद बिड़ला कॉलेज पिलानी से हायर सेकंड्री परीक्षा मै भी वे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए, और इस बार भी वे प्रथम रहे. फिर से उन्हा दो स्वर्ण पदक मिले. एक बोर्ड की और से ओर दूसरा कॉलेज की ओर से. उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से गणित विषय से बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की. पंडितजी ने आगरा के सेंटजॉन्स कॉलेज मै एम. ए. के लिए दाखिला लिया परन्तु किन्ही कारण पडी बीच मै ही छोड़ प्रयाग चले गए जहाँ से उन्होंने एल. टी. किया.
पडी पूरी कर लेने के साथ ही उन्होंने कोई नौकरी न करने का निश्चय किया. उसके स्थान पर उन्होंने राष्ट्रिय जाग्रति एंव राष्ट्रिय एकता के राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के कार्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया. १९५१ तक वे संघ के विभिन्न पदों पर रहकर समाज चेतना का कार्य करते रहे. १९५१ में जनसंघ की स्थापना हुई तब से उन्होंने अपनी सेवाए जनसंघ को अर्पित कर दी. डॉक्टर मुखर्जी उनकी संगठन क्षमता से इतने अधिक प्रभावित हुए की कानपूर अधिवेशन के बाद उनके मुह से यही उदगार निकले कि ''यदि मेरे पास ओर दो दीनदयाल होते तो मै भारत का राजनितिक रूप बदल देता '' दुर्भाग्य से १९५३ मै डॉक्टर मुखर्जी की मृत्यु होगी और भारत के राजनितिक रूप को बदल देने का दायित्य स्वयं पंडित दीनदयाल के कंधो पर आ पड़ा. उन्होंने इस कार्य को इतने चुपचाप और विशेष ढंग से पूरा किया कि जब १९६७ के आम चुनावों के परिणाम सामने आने लगे तब देश आश्चर्यचकित रह गया. जनसंघ राजनीतिक दलों में दूसरे क्रमांक पर पंहुच गया. यद्यपि दीनदयालजी महान नेता बन गए थे परन्तु वे अपने कपडे स्वयं ही साफ़ करते थे. स्वभाव से इतने सरल थे कि जब तक
वे एक उच्च कोटि के पत्रकार भी थे. लखनऊ से प्रकाशित "पांचजन्य" साप्ताहिक और "स्वेदश" दैनिक के संपादक क रूप में वे न केवल इन पत्रों का संपादन करते थे, मशीन भी चला लेते थे और "वाइन्डर" तथा " डिस्पेचर " का कार्य भी कर लेते थे १९४०-४८ के बीच उन्होंने एक ही बार में १६ घंटे बैठकर " चन्द्र गुप्त मौर्य " नामक लघु उपन्यास भी लिख डाला
एक- एक कार्यकर्ता का निर्माण कर एक राज्य से दूसरे राज्य में उन्होंने जनसंघ का विस्तार किया श्री अटल विहारी के शव्दों में - ' वे स्वयं तो सनद सदस्य नहीं थे परन्तु वे जनसंघ के सभी संसद सदस्यों के निर्माता थे उनकी एकात्म मानवबाद कि ब्याख्या अदभुत थी ११ फरवरी -१९६८ को इस महँ आत्मा कि रहस्य पूर्ण परिस्थितियों में हत्या हो गयी
दीनदयाल जी के बारें में इनका कहना है -
-> भारत के गृहमंत्री श्री चौहान ने उनको एक आदर्श भारतीय कहकर श्रधांजलि दी
-> राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ के तत्कालीन सर कर्यबाह श्री बाला साहेब देवरस ने उन्हें ' एक आदर्श' स्वयं सेवक बताया और डा. हेडगेवार के साथ उनकी तुलना की
-> श्री नाथ पै ने उनको गाँधी, तिलक ओर बोस कि राष्ट्रीय परंपरा का पुरुष कहा
-> श्री हीरेन मुखर्जी ने उन्हें अजात शत्रु कि संज्ञा दी
-> आचार्य कृपलानी ने " देवीय गुण संपन्न व्यक्ति" के विशलेषण के साथ उनका वर्णन किया

ऐसे महान विभूति को मेरा शत्-शत् नमन

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

नेहरु और गांधी जैसे लोगो ने भारत की आजादी को विलम्बित कर दिया । नतिजा यह है कि भारत आज भी अमेरिका/ईङलैण्डका अर्द्ध उपनिवेश हीं है । इस गुलामी से मुक्ति सिर्फ दीन दयाल उपाध्याय की विचारधारा से मिल सकती है । लेकिन उनकी विचारधारा पर जो काम चलना चाहिए वह पुरे जोर शोर से नही चल पा रहा है । कट्टरवादी हिन्दुत्वमा उनका दर्शन गुम हो जाता है । सभी से अनुरोध है कि उनकी पुस्तक को एक बार नही कई बार पढे और उस पर सामुहिक चर्चा करे । एक एक शब्द महत्वपुर्ण है ।