मंगलवार, 3 मार्च 2009

मेरे मोहल्ले के लडक़े अब क्रिकेट नहीं खेलते



आज मैं बैठा-बैठा सोच रहा था कि आज-कल मेरी कॉलोनी के लडक़ों को क्या हो गया है। न तो वे कबड्डी खेलते हैं, न फुटबॉल, न हॉकी और तो और सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट भी नहीं खेलते। जब हम उनकी उम्र के थे तो उठा बैट-बॉल सुबह से ही क्रिकेट के मैदान की ओर निकल जाते थे। माँ पुकारते ही रह जाती थी - बेटा खाना तो खा जा, बेटा नहा तो ले। पर हमारी मस्तमौला क्रिकेट टीम कहां अपनी माँ की पुकार सुन कर रूकती थी। उसे तो मैदान कीपुकार जोर से सुनाई पड़ती थी। तो चले जाते थे माँ की आवाज को अनसुना कर। पर शाम को तो घर वापस ही आना पडता था। तब माँ की डाँट से कौन बचाता। खैर उन दिनों को याद करता हूँ तो बहुत से बिझुडे दोस्तों की भीयाद ताजा हो जाती है। कुछ ऐसे ही थे हमारे वो दिन। पर आज देखता हूँ कि मेरे कॉलोनी के लडक़े कहीं नही जाते।हाँ गली के नुक्कड पर, चौराहे पर जरूर खडे मिल जाते हैं। वहाँ वे प्रतिदिन बिना नागा के जाते हैं। पता क्यूँ ? चलो मैं बताता हूँ वो इसलिए कि उनके जीवन जीने का टेस्ट बदल गया है। उन्हे अब खेलने में मजा नहीं आता। बल्कि उन्हें चौराहों पर खडे होकर फालतू की बातें और वहाँ से गुजरने वाली लडकियों को देखना और मौका पाकर उन्हें तंग करना अच्छा लगता है। अब उनके जीवन का टेस्ट इसमें है। और हाँ एक और जादू की चीज के बारे में तो बताना ही भूल गया होता। तो सुनो वो जादू की चीज है मोबाइल फोन। क्या बात है? आज कल हर किसी लडक़े के जेब में एक से एक बेहतरीन फीचर युक्त मोबाइल आपको मिल जाएगा। भले ही बंदा कुछ काम धंधा नहीं करता हो पर मोबाइल का खर्चा तो निकाल ही लेता है। आपको क्या लगता है ये मोबाइल पर थोड़ा बहुत खर्च करते हैं। अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो आप गलत हैं, कभी-कभी तो इनके मोबाइल का खर्चा आपके मोबाइल से बहुत अधिक आता है। क्यों? घण्टों मोबाइल पर जो चिपके रहते हैं, न नींद आती है, न भूख लगती है बस मोबाइल मोबाइल खेेलते रहते हैं। जब कभी अगर वे मैदान में भूले भटके पहुंच भी जाये तो यहां भी उनका मोबाइल पीछा नहीं छोड़ता। अब आप क्या सोचने लगे? बीच पिच पर वीरेन्द्र सहवाग की तरह उनकी माँ का भी फोन आता है। फोन तो आता है पर उनकी माँ का नहीं, उनकी मा-सूका का। वो भी ऐसी मासूका का जिसे अभी अपनी नाक पोंछना भी नहीं आता। खैर मैं तो सोच-सोच कर थक गया। अब आप ही सोचो मेरी कॉलोने के इन लडक़ों का क्या होगा? अरे हाँ यहकाथा सिर्फ मेरे कॉलोनी के लडक़ों की नहीं है, सर्वव्यापी है। जरा गौर से देखो अपने आस-पास। प्रयास करो उन्हें कबड्डी, हॉकी, फुटबाल के मैदान ले जाने का, नहीं तो कम से कम क्रिकेट के मैदान में ले जाकर तो खडा ही कर दो। क्योकि इनका खेलना जरूरी है।
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4 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

समय बदलता जा रहा है...........
हम को भी इसको मानना पड़ेगा और वक़्त के साथ साथ नयी नयी तरीके खोजने पढेंगे, बच्चों को खेल की तरफ मोड़ने के

बेनामी ने कहा…

ye kahani to shayad har muhalle ki hai. sirf nukkad par hi nahi,mujhe to lagta hai ki mobile to har samay kan par hi chipka rahta hai .

----------------------------------------"VISHAL"

www.जीवन के अनुभव ने कहा…

achhi baat kahi par ab is badalate parivesh ke liye jimmedaar kaun hai aur iasame badalaav kaise sambhav hai is par bhi vichar jaruri hai

राहुल यादव ने कहा…

achchha likha hai sir. aapki chinta jayaj hai par main samjhta hoon jindgi me har pahlu hona chahiye. sath hi koi bhi cheej buri nhi hoti hai.. aaj ke ladke khelte nhi ye bura hai par masuka rakhna ya gappe marna bhi bura nhi hai.. vyaktitya ka vikas har cheej se hota hai...jindi me kisi bhi pahlu se dooriya mat banao.. har pal ji bhar kar jeena chahiye. or vah khushi kisi bhi cheej me ho sakti hai.