मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

मतदान अवश्य करें


30 अप्रैल को मैं करूंगा अपने मत का प्रयोग आप भी करना। वोट का प्रयोग करना जरूरी है। अगर आप वोट नहीं डालते तो आपको नेताओं पर और राजनीति पर ऊंगली उठाने का कोई अधिकार नहीं है। राजनीति में अगर गंदगी है तो उसे साफ करने के लिए आगे आईये। मत डालिए अगर सकारात्मक नहीं डाल सकते तो फार्म 17 अ के तहत नकारात्मक मत डालिए पर डालिए जरूर।
वोट डालने से पहले विचार करें -
- चुनाव मैदान में खड़े अनेक प्रत्याशियों में से आपको एक का चुनाव करना है। प्रत्याशी, दल और उसका सिद्धांत इन पर विचार करना पड़ता हैं कोई बुरा प्रत्याशी केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छे दल की ओर से खड़ा है। बुरा बुरा ही होता है और दुष्ट वायु की कहावत की भाँति वह कहीं भी और किसी का भी हित नहीं कर सकता। दल के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा या वह निर्णय में भूल कर गया होगा। अतः ऐसी गलती को सुधारना उत्तरदायी मतदाता का कर्तव्य है। इसलिए भी हमें शत-प्रतिशत मतदान के लिए जनता को जागरूक करना
- मतदाता को उद्देश्य पर विचार करना चाहिए, जाति पर नहीं। जाती को हावी न होने दंे। डाॅ. मनोहर लोहिया तक को केवल इसलिए प्रत्याशी बनने से वंचित रह जाना पड़ा क्योंकि वे उस जाति के नहीं थे, जिसके सदस्यों की उस निर्वाचन क्षेत्र में बहुत अधिक संख्या थी। घटना उत्तर प्रदेश के एक उपचुनाव के समय घटित हुई थी।
- संभावित विजेता का साथ न देकर योग्य प्रत्याशी का साथ देना चाहिए। पहले सही मनुष्य का चुनाव करें और तब यह प्रयत्न करें कि आपका चुना हुआ प्रत्याशी विजयी हो। वह ही आपकी विजय होगी।- आप दुनिया को बता दे कि आपका मत बिकाऊ नहीं है।
- जब आपको मतदान करना हो तो आप अंतिम क्षण तक असमंजस की स्थिति में न रहें। पहले ही सोच विचार लें कि किसे वोट करना है।- मतदान का अधिकार सामाजिक उपयोग के लिए व्यक्तिगत अधिकार है वह आपकी स्वतंत्रता का द्योतक है। आप किसी के आदेश या याचना पर मतदान न करंे। अंत मैं एक ही आग्रह करूंगा कि मतदान अवश्य करंे। अपने स्वाभिमान के लिए, आंतकवाद के खिलाफ, मंहगाई के खिलाफ, अशिक्षा, असुरक्षा, असुविधा के खिलाफ।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

पश्चिम की नकल से अपनी तहजीब भूले भारतीय

भारत देश अपने आप में बहुत खास देश है। यहाँ की संस्कृति के चर्चे विश्व में किए जाते हैं, लेकिन आज यहाँ के हालात ऐसे हो चले हैं कि लोग पश्चिमी संस्कृति को ग्रहण कर रहे हैं और अपनी तहजीब को भूलते जा रहे हैं। हम जब भी यहाँ आते हैं और इस तरह से यहाँ की संस्कृति को विकृत होते हुए देखते हैं तो बड़ा बुरा-सा लगता है। यह बात न्यूयार्क निवासी कृष्ण कुमार गुप्ता और उनकी पत्नी श्रीमती सुधा गुप्ता ने नई दुनिया के पत्रकार से चर्चा के दौरान कही। उन्होंने कहा मुझे बड़ा दुख होता है कि दुनिया भारत की संस्कृति की ओर दीवानों की तरह देख रही है और हमारे लोग दूसरों की विकृत संस्कृति के पीछे आंख बंद करके दौड़ रहे हैं। कृष्ण कुमार जी मूलतः ग्वालियर के रहने वाले हैं, यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई है। काम के सिलसिले में वे सन् 1981 में अमेरिका चले गये थे तब से वहीं रह रहे हैं। श्री गुप्ता ने बताया कि जिस तरह यहाँ की पीढ़ी भारतीय संस्कारों, परंपराओं से दूर हो रही है, अपनी संस्कृति में कमियाँ दिखा रही है वहीं न्यूयार्क में रहने वाले भारतीय आज भी भारतीय रहन-सहन (भारतीय कल्चर) ही पसंद करते हैं। उनके साथ आई उनकी पत्नी श्रीमती सुधा गुप्ता ने भी इस बात पर खेद प्रकट किया कि हम लोग अपने ही देश में अपने संस्कृति को खोते जा रहे हैं जबकि दुनिया भर में इसकी चर्चा है। जहाँ यहाँ की लड़कियों के बाद अब विवाहित महिलायें जींस पहनना चाहती हैं वहीं वहाँ की महिलायें भारतीय परिधान पहनना ही पसंद कर रहीं है और अपने बच्चो को भी भारतीय संस्कारों से शिक्षित कर रही हैं। उन्होनं कहा कि हमने अपने बच्चों को सिर्फ कर्म का धर्म ही सिखाया हैं यदि उनसे पूछा जाये कि तुम्हारा धर्म कौन-सा है तो वे कर्म को ही अपना धर्म बतायेगंे। भगवत गीता में भी यही लिखा है।
हमें लज्जा आनी चाहिए कि किस तरह दुनिया हमसे सीखना चाहती है और हम दुनिया को सिखाने की जगह भोग-विलास में डूबते जा रहे हैं। जिस संस्कृति (पश्चिमी संस्कृति) से वहाँ के लोग भाग रहे हैं हम उसे दीवानों की तरह अपनाते जा रहे हैं। उसके तमाम दुष्परिणाम हमें देखने को मिल रहे हैं। पश्चिमी संस्कृति के अवगुणों को देख कर ही संभवतः स्वामी दयानंद सरस्वती ने लोगो से कहा था - वेदों की ओर लौटो। हमें अपने आपको बचाना है और संस्कारों को जीवित रखना है तो अपनी जड़ो की ओर लौटना होगा। हम जिस आजादी, बोल्ड माइंड और खुलेपन की बात करते हैं उसी वातावरण में 28 वर्षों से रहने के बावजूद श्री गुप्ता और उनका परिवार आज भी भारतीय संस्कारो को अपनाते हैं बल्कि अपनाते ही नहीं जीते हैं। यही है भारतीयता का जादू। अभी भी समय है जाग जाओ, तन्द्रा तोड़ो, मत किसी के पीछे भागो। खुद को पहचानो। तुम औरों की नकल क्यों करते हो जबकि और आपकी नकल करना चाहते है खैर वैसे आप खुद समझदार हैं मैंने तो बस अपनी और श्री गुप्ता जी की बात से आपको अवगत कराने का प्रयास किया है बाकी आपकी समझ।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

मेरे गांव का मेला, बडा रंगीला


मंदिर परिसर के अन्दर का द्रश्य और मेले में उमड़ी भीड़ की झलक


मेरे गांव के आस-पास के इलाके में तीन-चार मेले लगते हैं। सभी चैत्र में ही लगते हैं। नवदुर्गा में शक्ति उपासना के बाद अष्टमी, नौमी के दिन ये मेले लगते हैं सभी मेले किसी देवी माँ के आंगन में ही लगते हैं। मेरा दोस्त भी मेरे साथ आज मेला देखने गया था। वह एकाएक मुझसे पूछता है कि भाई आज गर्मी बहुत हो रही है गांव वाले इस मेले का आयोजन सर्दियों में क्यों नहीं करते। तब मैंने उसे बताया- भाई इस मेले में हजारों लोगों की जो भीड़ दिख रही है वे सब इस धरती माँ के लाडले बेटे हैं जो उसके आंचल में फसल उगाते हैं और सब के पेट भरने की व्यवस्था करते हैं। ये सभी लाड़ले बेटे इसी समय फुरसत में होते हैं। जहां ये मेला लग रहा है वहां सर्दियों में खेती होती है। सभी किसान खेती में व्यस्त रहते हैं उनके पास समय नहीं रहता और तो और उस समय उनके पास उत्सव मनाने के लिए पैसा भी नहीं होता। चैत्र में किसान की फसल आती है वह उसे बेच कर अपनी हथेली पर कुछ रूपये पाता है तब उसका मन भी उत्सव मनाने के लिए व्याकुल होता है और वह धू से उत्सव मनाता है पूरे नौ दिन का। नववर्ष के पहले दिन से दशमी तक दिल खोल कर उत्सव मनाता है। बस यही कारण है इन दिनों मेले का आयोजन करने का।

अब चलो मैं अपने गांव के मेले का वर्णन करता हूँ- यूं तो मेरा गांव
का नाम झांकरी है और आज के इस मेले का आयोजन पास ही के एक अन्य गांव ककरधा में किया गया यहां वर्षों पुराना मंदिर है - बसईया वाली माता का मंदिर। जिसकी छत्र छाया में इस मेले का आयोजन किया जाता है। माता के मेले में सभी समाज, जाति, धर्म के लोग आते हैं मेला सुबह से शुरू हो जाता है दिन चढ़ते-चढ़ते लोगों की संख्या बढ़ती जाती है। मेले में जिधर देखूं उधर श्रद्धालू चाट-पकौडी के ढेले, बेर बेचते साईकिल वाले-बर्फ वाले और ठण्डा-गर्म सब मिल रहा था।

गांव के मेले की एक नहीं अनेक खाशियत हैं मेला परिसर में कदम रखने से पहले ही आपके चेहरे पर फोकट का पाउडर लगने लगता है अरे भई! खेतों की उड़ती धूल थोडे ही देखती है कि आप कौन की बहुराष्ट्रीय या राष्ट्रीय कंपनी का पाउडर लगाते हैं। यहाँ तो आपको सूट करे या न करे एक ही पाउडर लगेगा चाहे आप अपने चेहरे को कितना ही बचाने की कोशिश करें। बच नहीं पाएगें। इधर धूल उडती है उधर चाट बन रही होती है। मैंने देखा कि चाट बनाने वाला जितने मसाले नहीं मिला पाता होगा उतनी उसमें धरती से उडी धूल मिल जाती है। फिर भी लोग मजे से खाते हैं और बच्चे तो अगर नहीं दिलाई तो रोने लगते हैं। आस-पास के गांव से लोग बैलगाडियों में, ट्रेक्टर में, जीप आदि में भर-भर कर आते हैं। पार्किंग की भी गजब व्यवस्था है बिना किसी प्रशासन की मदद के सुव्यवस्थित रहती है। इतनी सुव्यवस्थित कि हर बंदे को पता होता है कि कहाँ किस गांव के ट्रेक्टर-गाडी खडी होंगी। शहर से भी कोई पहुचता है तो उसे रेडियो रूम से अनाउन्स नहीं करवाना पड़ता कि फला व्यक्ति कहाँ पर है। वैसे वहाँ रेडियो रूम होता भी नहीं है। हर साल यथा स्थान लोग अपने वाहन खड़े करते हैं। गांव से लोग हलवा, पूड़ी, सब्जी, विभिन्न प्रकार के व्यंजन बना कर लाते हैं और सब मिल जुल कर खाते हैं। लडकियों और छोटे बच्चों के बड़े मजे होते हैं। क्यों? अरे भई! उन्हें सभी बड़े लोग मेला देखने के लिए पैसे देते हैं। मै छोटा था तब मुझे भी मिलते थे पर आज तो उल्टा हुआ, मेले में पंहुचते ही जेब ढीली हो गयी और जब तक मेले में रहा छोटे भाई-बहन, भतीजे-भान्जे जिद पर रहे। हाथी दिला दो, घोड़ा दिला दो, ट्रेक्टर, गाड़ी दिला दो। कैसे-कैसे पीछा छुडया मैं ही जानता हूँ।
सभी आने वाले लोग माँ बसईया वाली के दर्शन को जाते और अपनी मनोकामनाएं उसके समक्ष रखते। अच्छा एक बात ओर गांव वाले माता रानी को खुश करने के लिए नेजा और जवारे लेकर आते हैं। ( नेजा- ध्वज पताका, 15 से 20 फीट लम्बे बांस को रंगीन वस्त्रों में लपेटकर उस पर गुब्बारे, खिलौने आलि से उसे सजा कर लाया जाता है। जवारे- धान के अंकुर)। सभी गांव वालों में हौड रहती है कि किस गांव की ओर से कितना ऊंचा नेजा माता के दरबार में लाया जाएगा।
गांव के मेले में सभी प्रकार की दुकानों का प्रबंध रहता है। विशेष रहता है महिलाओं के श्रंृगार की सामाग्री का। महिलाओं की सौदर्य प्रसाधनों की दुकानों का आयोजन अलग सेक्शन में होता है। अगर आप पुरूष हैं तो भूल कर भी वहां मत जाना। वरना पुलिस बैंड बजा देगी।
जैसे-जैसे सांझ ढलने लगती है लोग अपने घरों की ओर लौटने लगते हैं, साथ ही मेले का एक अन्य आकर्षण की तैयारी भी तेज होने लगती है। वो है- दंगल। दूर-दूर स्थानों से प्रत्येक वर्ष दंगल में कुश्ती लडने के लिए पहलवान आते हैं। दंगल में जब पहलवानो का नाम पुकारा जाता है तो अनायस ही बचपन में पढ़ी कविता - कोई पहलवान अंबाले का, कोई पहलवान पटियाले का, की याद आ जाती है। दंगल में पहलवाने के लिए ईनाम की जो बोली लगाई जाती है उसे झंडी कहते हैं। गबरू-गबरू जवान जब कुश्ती करते हैं तो धरती का भी सीना डोलने लगता है। और कुश्ती के आयोजन के पश्चात मेला समाप्त हो जाता है। लोग अपने वाहनों से घर की ओर भागने लगते हैं। जब गांवो में यांत्रिक वाहनो की इतनी पंहुच नहीं थी तब की यादें आज भी ताजा है। गांव वाले मेले से लौटते में बैल गाडियों की रेस लगाते थे। इस रेस में जीतने के लिए सभी किसान अपने बैलों को पूरे साल भर खूब खिलाते-पिलाते थे। लेकिन अब वो दिन नहीं रहे। हम आधुनिक हो गये हैं न।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

मेरा भारत महान है, मुझे इस पर गर्व है


विश्व भर के इतिहासकारों, लेखकों, राजनेताओं और अन्य जानी मानी हस्तियों ने भारत की प्रशंसा की है और शेष विश्व को दिए गए योगदान की सराहना की है। जबकि ये टिप्पणियां भारत की महानता का केवल कुछ हिस्सा प्रदर्शित करती हैं, फिर भी इनसे हमें अपनी मातृभूमि पर गर्व का अनुभव होता है।
मेरे देश भारत के सम्बन्ध में प्रसिद्ध व्यक्तियों के विचार -
* "हम सभी भारतीयों का अभिवादन करते हैं, जिन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना विज्ञान की कोई भी खोज संभव नहीं थी।!"
- एल्बर्ट आइनस्टाइन (सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी, जर्मनी)

* "भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्म स्थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्मक सामग्री का भण्डार केवल भारत में है!"
- मार्क ट्वेन (लेखक, अमेरिका)

* "यदि पृथ्वी के मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहां जीवित मानव जाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है, और जहां मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा, वह भारत है।!"
- रोम्या रोलां (फ्रांसीसी विद्वान)

* "भारत ने शताब्दियों से एक लम्बे आरोहण के दौरान मानव जाति के एक चौथाई भाग पर अमिट छाप छोड़ी है। भारत के पास उसका स्थान मानवीयता की भावना को सांकेतिक रूप से दर्शाने और महान राष्ट्रों के बीच अपना स्थान बनाने का दावा करने का अधिकार है। पर्शिया से चीनी समुद्र तक साइबेरिया के बर्फीलें क्षेत्रों से जावा और बोरनियो के द्वीप समूहों तक भारत में अपनी मान्यता, अपनी कहानियां और अपनी सभ्यता का प्रचार प्रसार किया है।"
- सिल्विया लेवी (फ्रांसीसी विद्वान)

* "सभ्यताएं दुनिया के अन्य भागों में उभर कर आई हैं। प्राचीन और आधुनिक समय के दौरान एक जाति से दूसरी जाति तक अनेक अच्छे विचार आगे ले जाए गए हैं। . . परन्तु मार्क, मेरे मित्र, यह हमेशा युद्ध के बिगुल बजाने के साथ और ताल बद्ध सैनिकों के पद ताल से शुरू हुआ है। हर नया विचार रक्त के तालाब में नहाया हुआ होता था . . . विश्व की हर राजनैतिक शक्ति को लाखों लोगों के जीवन का बलिदान देना होता था, जिनसे बड़ी तादाद में अनाथ बच्चे और विधवाओं के आंसू दिखाई देते थे। यह अन्य अनेक राष्ट्रों ने सीखा, किन्तु भारत में हजारों वर्षों से शांति पूर्वक अपना अस्तित्व बनाए रखा। यहां जीवन तब भी था जब ग्रीस अस्तित्व में नहीं आया था . . . इससे भी पहले जब इतिहास का कोई अभिलेख नहीं मिलता, और परम्पराओं ने उस अंधियारे भूतकाल में जाने की हिम्मत नहीं की। तब से लेकर अब तक विचारों के बाद नए विचार यहां से उभर कर आते रहे और प्रत्येक बोले गए शब्द के साथ आशीर्वाद और इसके पूर्व शांति का संदेश जुड़ा रहा। हम दुनिया के किसी भी राष्ट्र पर विजेता नहीं रहे हैं और यह आशीर्वाद हमारे सिर पर है और इसलिए हम जीवित हैं. . .!"
- स्वामी विवेकानन्द (भारतीय दार्शनिक)


* "यदि हम से पूछा जाता कि आकाश तले कौन सा मानव मन सबसे अधिक विकसित है, इसके कुछ मनचाहे उपहार क्या हैं, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से किसने विचार किया है और इसकी समाधान पाए हैं तो मैं कहूंगा इसका उत्तर है भारत।"
- मेक्स मुलर (जर्मन विद्वान)

* "भारत ने चीन की सीमापार अपना एक भी सैनिक न भेजते हुए बीस शताब्दियों के लिए चीन को सांस्कृतिक रूप से जीता और उस पर अपना प्रभुत्व बनाया है।"
- हु शिह (अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत)

* “दुनिया के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां एक बार जाने के बाद वे आपके मन में बस जाते हैं और उनकी याद कभी नहीं मिटती। मेरे लिए भारत एक ऐसा ही स्थान है। जब मैंने यहां पहली बार कदम रखा तो मैं यहां की भूमि की समृद्धि, यहां की चटक हरियाली और भव्य वास्तुकला से, यहां के रंगों, खुशबुओं, स्वादों और ध्वनियों की शुद्ध, संघन तीव्रता से अपने अनुभूतियों को भर लेने की क्षमता से अभिभूत हो गई। यह अनुभव कुछ ऐसा ही था जब मैंने दुनिया को उसके स्याह और सफेद रंग में देखा, जब मैंने भारत के जनजीवन को देखा और पाया कि यहां सभी कुछ चमकदार बहुरंगी है।”
- किथ बेलोज़ (मुख्य संपादक, नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी)