शुक्रवार, 27 मार्च 2009

आओ मिलकर मनाएं अपना नववर्ष


आज से दस-एक साल पहले की ही बात है मैं तब से ही इस बात को जानता हूँ कि असल में हमारा नववर्ष कौन-साहै ? 1 जनवरी से प्रारंभ होने वाला या चैत्र शुल्क प्रतिपदा से। जब मैं अपने दोस्तों से इस बारे में बात करता था औरकरता हूँ तो उन्हें सिर्फ यही पता होता है कि नववर्ष को 1 जनवरी को ही आता है। मुझे बहुत दुख होता है कैस हमविदेशी त्यौहारों के चक्कर में फंस कर अपने त्यौहारों को भूलते जा रहे हैं ? अच्छा जब मैं उनसे पूछता हूँ कि 1 जनवरी से नववर्ष मनाने का क्या वैज्ञानिक कारण है ? इस दिन ऐसा क्या हुआ जो कि इसे नववर्ष की शुरूआत केरूप में मनाया जाता है। सभी अपनी बगलें झांकते नजर आते हैं। हाँ , एक जबाब जरूर होता है इस दिन ईस्वीकैलेण्डर बदलता है और कोई औचित्य कारण उनके पास नहीं होता।
पहले उस कैलेण्डर की विसंगतियों पर चर्चा करते है जिसके हम गुलाम है। मानसिक गुलाम -
1952 में ‘‘सांइन्स एण्ड कल्चर’’ पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट कहती है -
ईसवी सन् का मौलिक सम्बन्ध ईसाई पन्थ से नहीं है। यही तो यूरोप के अर्ध सभ्य कबीलों में ईसा मसीह के बहुतपहले से ही चल रहा था।
इसके एक वर्ष में 10 महीने (304 दिन) होते थे। बाद में राजा पिम्मालियस ने दो माह (जनवरी, फरवरी) जोड़ दिएतब से वर्ष 12 माह (355 दिन) का हो गया। यह ग्रह की गति से मेल नही खाता था। तो जूलियर सीजर ने इसे 365 दिन 5 घंटे 52 मिनट 45 सेकण्ड का करने का आदेश दिया। 3 वर्ष तक 365 दिन चोथे वर्ष फरवरी में 29वीं तारीखबढ़ाकर 366 दिन कर लिए जाते हैं।
अब इसमें पंगा ही पंगा है। क्या 5 घंटे 52 मिनट 45 सेकण्ड को 4 से गुणा करने पर 24 घंटे का पूरा दिन बनपाएगा ? नहीं इसमें की उनकी की गणना से सवा सात मिनट का अन्तर रह जाएगा। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरार जी देसाई फंस गए थे 29 फरवरी के फेर में उनका जन्मदिन 29 फरवरी को पड़ता था। ईसवी कैलेण्डर कीगड़बड़ से देसाई जी 60 जन्मदिन नहीं मना पाए।
ठीक इसी तरह हिजरी सन् 356 दिन का होता है। सौर गणना से प्रायः 10 दिन कम। मौलाना साहब हिन्दू पंचांगको देखे बिना बतलाने में असमर्थ रहते हैं कि मौसमे बहार और मौसमें खिजां उनके किस महीने में पड़ेगी। जबकिहिन्दुस्तानी कैलेण्डर में तय है कि किस माह मे कौन सी ऋतु आएगी।

भारतीय काल गणना
एक अंग्रेज अधिकारी ने पं. मदनमोहर मालवीय से पूछा कि ‘‘कुम्भ में इतना बड़ा जन सैलाब बगैर किसी निमंत्रणकार्ड के कैसे जाता है ? तब पंडित जी ने उत्तर दिया - छः आने के पंचांग से।
अपने देश के गांवों में, शहरों में, वनो में, पहाड़ों पर या भारत के बाहर सैंकड़ो मील दूर विदेशों में हिन्दू कहीं भी रहेवह पंचांग जानता है तो अपने में त्यौहार, उत्सव, कुम्भ, विभिन्न देव स्थानों पर लगने वाले मेले की तिथिंया बगैरआंमत्रण, सूचना के उसे मालूम होती हैं यही नहीं सौ वर्ष बाद किस दिन कहां कुम्भ होगा, दीपावली कब होगी यहभी ज्योतिषी किसी भी समय बता सकता है।
बहुत महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक बात है। एक समय था जब कालगणना का केन्द्र बिन्दु उज्जैन था। जिस प्रकार आज ग्रीनविच को केन्द्र मानकर गणना की जाती है, उस प्रकार उज्जैन कालगणना का मध्य बिन्दु था। क्योंकि पृथ्वी व सूर्य की अवस्थिति के अनुसार संसार का केन्द्र उज्जैन ही है। इस कारण उज्जैन का महाकाल की नगरी माना गया था।

भारतीय नववर्ष से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण पक्ष -
* चैत्र शुल्क प्रतिपदा के दिन ही बासंतिक नवरात्र का आरंभ होता है।
* सृष्टि की रचना भी ब्रह्मा ने इसी दिन की थी।
* त्रेतायुग में प्रभु श्री राम का राज्यभिषेक इसी दिन हुआ।
* महाभारत के धर्मयुद्ध में धर्म की विजय हुई और राजसूय यज्ञ के साथ युधिष्ठिर का नया संवत्
प्रारम्भ हुआ।
* महान सम्राट विक्रमदित्य ने इसी दिन विक्रम संवत् आरम्भ किया।
* संत झूलेलाल का जन्मदिन।
* गुरू अंगददेव जी का जन्मदिवस।
* महार्षि दयानंद सरस्वती आर्य समाज की स्थापना प्रतिपदा को ही की थी।
* इस दिन वसन्त का वैभव - नव किसलयों का प्रस्फुटन, नव चैतन्य, नवोत्थान, नवजीवन का प्रारंभ
कर मधुमास के रूप में प्रकृति का नया श्रृंगार करती है।

चुभने वाली बात -
हमारे वे साथी जो अपने आप को प्रगतिशील कहते हैं उन त्यौहारों का मनाने की अपील जोर-शोर
से करते हैं जिनका एक तो हमारी संस्कृति से कुछ लेना देना नहीं हैं। जबकि उन त्यौहारों का बड़े
भौड़े तरीके से मनाया जाता है। 31 दिसम्बर की रात को जिस तरह के नाटक समाज समाज हो
होते हैं सब जानते है। सिर्फ उस दिन नववर्ष मनाने के नाम पर हुडदंग होता है।
जरागौर करना एक ओर वह नववर्ष है। जिसे शराब पीकर आधी रात को सड़कों पर निकल कर
हमारे युवा मनाते है दूसरी ओर हमारा अपना नववर्ष जिसे बड़ी शालीनता के साथ सूर्य की रश्मियों
के स्वागत के साथ मनाया जाता है।

हमारा दुर्भाग्य -
हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज भी हम अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से चल रहे हैं।
स्वतन्त्र भारत की सरकार ने राष्ट्रीय पंचाग निश्चिित करने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक डाॅ. मेघनाथ
साह की अध्यक्षता मेंकैलेण्डर रिफार्म कमेटीका गठन किया था। इस कमेटी ने विक्रम संवत को
राष्ट्रीय संवत बनाने की सिफारिश की थी।
लेकिन दुर्भाग्यवश................ जैसा हमेशा होता आया है ............. अंग्रेजी मानसिकता के नेतृत्व को यह
पसन्द नहीं आया।
अब समय है जागने का अपने आप को पहचानने का। समाज में जो करवट बदल रहा है।
उसे महशूस किया जा रहा है। उसी का परिणाम है। दस साल पहले भारतीय नववर्ष का इतनी
धूमधाम के साथ नहीं मनाया जाता था पर अब अंतर आया है। लोग फिर से अपना नववर्ष पहचाने
लगे हैं। अक्सर 1 जनवरी का मैंने कई लोगों का यह कहते सुना है - क्षमा करे यह हमारा नववर्ष
नहीं है। हमारा नववर्ष तो चैत्र शुल्क प्रतिपदा को आता है।
सभी मित्रों को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।




सोमवार, 23 मार्च 2009

मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत कौन होगा ?

आज सुबह से ही सोच रहा था क्या लिखूं-क्या लिखूं? ऐसे महान क्रांतिकारी के बारे में जो इस भारत देश के नौजवानों का आदर्श है। भारत का ऐसा कोई युवा नहीं होगा जो भगत सिंह के बारे में न जानता हो और एक बात भगत सिंह सर्वाधिक पंसद किये जाने वाले भारत माता के सपूत हैं। यह बात इंडिया टुडे द्वारा सन् 2008 में किये गए सर्वेक्षण से पता चलता है जिसमें भगत सिंह को 60 महान भारतीयों में प्रथम महान भारतीय माना गया। इंडिया टुडे के इस सर्वेक्षण के अनुसार उन्हें ३७% भारतीयों ने उन्हे भारत माता का महानत सपूत बताया। इसी कारण सुबह से पशोपेश में था क्या लिखूं ? नहीं लिखू तो अपने लिखने का कोई मतलब नहीं रह जाता। तब सोचा उनके द्वारा लिखे गये पत्र को ही लिखते हैं जिससे उनका भारत के प्रति अगाध प्रेम छलकता है। हाँ इसके बाद जरूर एक निजी अनुभव लिखूंगा जिसने मुझे बहुत पीढ़ा दी थी।
फांसी के एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को, सेन्ट्रल जेल के ही 14 नम्बर वार्ड में रहने वाले बंदी क्रांतिकारियों ने भगत सिंह के पास एक पर्चा भेजा- ‘सरदार, यदि आप फांसी से बचना चाहते हो तो बताओ। इन घड़ियों में शायद कुछ हो सके।’ भगत सिंह ने उन्हे यह उत्तर लिखा-
जिन्दा रहने की ख्वाहिश कुदरती तौर पर मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन मेरा जिन्दा रहना मशरूत(एक शर्त पर) है, मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जिन्दा रहना नहीं चाहता।
मेरा नाम हिन्दुस्थानी इकंलाब पार्टी का निशान बन चुका है और इकंलाब-पसन्द पार्टी के आदर्शों और बलिदानों ने मुझे बहुत ऊंचा कर दिया है। इतना ऊंचा कि जिन्दा रहने की सूरत में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता।
आज मेरी कमजोरियां लोगों के सामने नहीं है। अगर मैं फांसी से बच गया तो वह जाहिर हो जाएंगी और इंकलाब का निशान मद्धिम पड़ जायेगा या शायद मिट ही जाये, लेकिन मेरे दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते फांसी पाने की सूरत में हिन्दुस्थानी माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए बलिदान होने वालों की तादाद इतनी बढ़ जायेगी कि इन्कलाब को रोकना इम्पीरियलिज्म(साम्राज्यवाद) की तमामतर शैतानी शक्तियों के बस की बात न रहेगी।
हां, एक विचार आज भी चुटकी लेता है। देश और इन्सानियत के लिए जो कुछ हसरतें मेरे दिल में थी, उनका हजारवां हिस्सा भी मैं पूरा नहीं कर पाया। अगर जिन्दा रह सकता, तो शायद इनको पूरा करने का मौका मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता।
इसके सिवा कोई लालच मेरे दिल में फांसी से बचे रहने के लिए कभी नहीं आया। मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत कौन होगा? मुझे आजकल अपने आप पर बहुत नाज है। अब तो बड़ी बेताबी से आखिरी इम्तिहान का इन्तजार है। आरजू हे कि यह और करीब हो जाये।
आपका साथी
भगत सिंह



सोमवार, 16 मार्च 2009

मैंने फिर से देखा ग्वालियर का किला


यूं तो मैंने ग्वालियर का किला कई बार देखा था। पर कल की बात ही अगल थी। कल जो देखा था, वो अभी तक नहीं देखा था। किले को यूं देखने का अंदाज भी कहाँ था, इससे पहले। फिर आज साथ मे भी तो गजब के लोग थे। एक तो हमारे आदरणीय शिक्षक श्री जयंत तोमर जिनके साथ किला-दर्शन का कार्यक्रम लगभग ड़ेढ साल से टल रहा था। जब मैंने जीवाजी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में पत्रकारिता के गुर सीखने के लिए दाखिला लिया। आज ये दिली तमन्ना भी पूरी हो गयी। गुरू माँ श्रीमति नीलम तोमर का भी तो स्नेही सानिंध्य मिला था और फिर साथ में मनमौजी मित्रो की टोली भी तो थी। तो भैया मजे तो आने ही थे। अब तो हम लोगो का दिमाग पत्रकारिता वाला भी हो गया है सो जानकारी भी समेटना था। तो शाम तक समेटी भी। अब आगे चलते हैं................
सबसे पहले हमने देखा मानमंदिर महल, जिसका निर्माण राजा मानसिंह ने करवाया। राजा मानसिंह को एक ओर वजह से दुनिया में पहचाना जाता है संगीत के क्षेत्र में। उन्हें ध्रुपद गायन का जनक माना जाता है। इतिहास की बाते ज्यादा नहीं करूंगा। इस पर यहीं ब्रेक लगाते हैं। मान मंदिर में चमगादड़ो की संख्या ठीक उसी तरह बढ़ रही है जिस तरह भारत की जनसंख्या। महल की दीवालों को चमगादडो की लघुशंका-दीर्घशंका से बचाने के लिए छत पर लोहे के जाल लगा दिए हैं। उन जालों पर चमगादड़ अपने चिरपरिचित अंदाज में उल्टे लटके रहते हैं। यहां नक्काशी, रंग-रोगन, रानी झूलाझगृह, फांसीघर, केशर कुंड और टेलीफोन देखा और खूब फोटो खींचे। टेलीफोन - संभवत: एक महल से दूसरे महल में बात करने के लिए पोल। यहाँ से निकल कर 80-81 खम्बो पर बनी छतरी में बैठकर भोजन किया। होली पर बनाई हुई मिठाई भी सब घर से लाए थे। यहां भोजन करते समय बाजीराव भोजन की याद आ गई। बाजीराव भोजन- जब सैनिक लम्बी दूरी पर युद्धों के लिए निकलते थे तो रास्ते में घोडों पर बैठकर ही खाना खाया करते थे। हाथ में रोटी, गुड़-साग लेकर। लेकिन हमने यहां घोडो पर बैठकर खाना नहीं खाया। पेट भर गया हो तो चलें.............
मान मंदिर के सामने बने छोटे-छोटे महलों की ओर। सबकी दुर्दशा देख कर तो बुरा लगा। जर्जर हालात। क्या हो रहा है? हमारी ऐतिहासिक धरोहरों के रख-रखाव की कैसी व्यवस्था है? तरह-तरह के क्रोधित प्रश्र मन में कौंधने लगे। हम इन महलों की ऊंची-ऊंची छतों पर गये। वहां से अपने प्यारे शहर का खूबसूरत नजारा देखते ही बनता था। छोटे खिलौनों से मकान डिब्बे-डिब्बेनुमा, सडक़ें उलझे हुए काले धागों की तरह, हरियाली तो यूं गाहब सी दिखी जैसे शहर से रूठ कर कहीं चली गई हो। जैसे कवि पत्नि अपने पति की बोंरिग कवितायों से उकता कर रूठ कर मायके चली गई हो। उफ! ये गर्मी। सब गर्मी से परेशान। बादलों ने देखा बच्चे परेशान हो रहे हैं गर्मी से, तुरंत गए, न जाने कहां से पानी भर लाए और सूरज दादा को ओट में ले कर शुरू हो गए। अभी तक उफ..! गर्मी थी अब आहा.. क्या मौसम आया है। चलो अब और आगे चलते हैं।
जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल। समझे गुरूद्वारे आ गए हैं। दाता बंदी छोड़ गुरूद्वारा। गुरूग्रंथ साहिब और महान आत्मा गुरू हरगोविन्द सिंह को मत्था टेका। सिक्ख सम्प्रदाय ने सदैब ही भारत और हिंदू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दिया है और सदैव इस हेतु वह सदैव आगे रहा है। गुरू हरगोविन्द साहब को जब मुगल बादशाह ने रिया करने के लिए आदेश जारी किया तो गुरू साहिब ने कह दिया मैं अकेला कैद से मुक्त नहीं होना चाहता। तब गुरू गोविन्द जी का दामन पकड़ कर 51 अन्य राजा कैद से मुक्त हुए थे।
अब आते हैं सास-बहू के मंदिर पर। एकता कपूर के धारावाहिक की सास-बहू नहींं। सास-बहू तो अपभ्रंस है, असली नाम है सहस्त्रबाहू का मंदिर। खूबसूरत दो मंदिरों का जोडा। जिन्हें देखे बिना शायद ही किले से कोई पर्यटक वापस जाता होगा।
अब तक जो मैंने नहीं देखा था- लाइट एण्ड साउण्ड शो। इसके बारे मैं सुनता तो अक्सर था पर कल प्रत्यक्ष देखा-सुना। शो के प्रांरभ होने का हम बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। इस बीच रात्री में किले से ग्वालियर का जो नजारा देखा तो देखता ही रह गया। कृत्रिम प्रकाश में झिलमिलाता मेरा शहर कितना खूबसूरत लग रहा था। बिलकुल नई दुल्हन की साड़ी की तरह, जिस पर हजारों चमचमाते सितारें जडे होते हैं। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की जादू भरी आवाज के साथ हमारी इंतजार की घडियाँ समाप्त हुई। गवालियर किले का इतिहास पूरे किले पर गूंजने लगा। क्या गजब की लाइटिंग हो रही थी, किले का अलग ही रूप-रंग निखर कर सामने आ रहा था। सांउड का क्या कहूँ? इस अनुभव को में शब्दों में बांधने में, मैं खुद को असमर्थ पा रहा हूँ। मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। इसके लिए तो आपको ग्वालियर किले पर ही आना पडेगा। इस कार्यक्रम ने दिन भर की थकान भुला दी। घर लौटते में सोच रहा था कितना खूबसूरत है किला........


शनिवार, 7 मार्च 2009

मेरे हिस्से में हरदम जूठन ही आया

८ मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
जब मैं इस दुनिया में आई
तो लोगों के दिल में उदासी

पर चेहरे पर झूठी खुशी पाई।
थोड़ी बड़ी हुई तो देखा,

भाई के लिए आते नए कपड़े
मुझे मिलते भाई के ओछे कपड़े।

काठी का हाथी, घोड़ा, बांदर आया
भाई थक जाता या

खेलकर उसका मन भर जाता

तब ही हाथी, घोड़ा दौड़ाने का,
मेरा नंबर आता।

मैं हमेशा से ये ही सोचती रही
क्यूं मुझे भाई का पुराना बस्ता मिलता
ना चाहते हुए भी
फटी-पुरानी किताबों से पढऩा पड़ता।
उसे स्कूल जाते रोज रूपया एक मिलता
मुझे आठाने से ही मन रखना पड़ता।

थोड़ी और बड़ी हुई, कॉलेज पहुंचे
भाई का नहीं था मन पढऩे में फिर भी,
उसका दाखिला बढिया कॉलेज में करवाया
मेरी इच्छा थी, बहुत इच्छा थी पर,
मेरे लिए वही सरकारी कन्या महाविद्यालय था।

और बड़ी हुई
तो शादी हो गई, ससुराल गई
वहां भी थोड़े बहुत अंतर के साथ
वही सबकुछ पायाथोड़ी बहुत बीमार होती तो
किसी को मेरे दर्द का अहशास न हो पाता
सब अपनी धुन में मगन -
बहु पानी ला, भाभी खाना ला
मम्मी दूध चाहिए, अरे मैडम चाय बना दे।

और बड़ी हो गई,
उम्र के आखरी पडाव पर आ गई
सोचती थी, काश अब खुशी मिलेगी
पर हालात और भी बद्तर हो गए
रोज सबेरा और संध्या बहु के नए-नए
ताने-तरानों से होता।

दो वक्त की रोटी में भी अधिकांश
नाती-पोतों का जूठन ही मिलता।
अंतिम यात्रा के लिए,
चिता पर सवार, सोच रही थी-
मेरे हिस्से में हरदम जूठन ही क्यों आया।

मंगलवार, 3 मार्च 2009

मेरे मोहल्ले के लडक़े अब क्रिकेट नहीं खेलते



आज मैं बैठा-बैठा सोच रहा था कि आज-कल मेरी कॉलोनी के लडक़ों को क्या हो गया है। न तो वे कबड्डी खेलते हैं, न फुटबॉल, न हॉकी और तो और सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट भी नहीं खेलते। जब हम उनकी उम्र के थे तो उठा बैट-बॉल सुबह से ही क्रिकेट के मैदान की ओर निकल जाते थे। माँ पुकारते ही रह जाती थी - बेटा खाना तो खा जा, बेटा नहा तो ले। पर हमारी मस्तमौला क्रिकेट टीम कहां अपनी माँ की पुकार सुन कर रूकती थी। उसे तो मैदान कीपुकार जोर से सुनाई पड़ती थी। तो चले जाते थे माँ की आवाज को अनसुना कर। पर शाम को तो घर वापस ही आना पडता था। तब माँ की डाँट से कौन बचाता। खैर उन दिनों को याद करता हूँ तो बहुत से बिझुडे दोस्तों की भीयाद ताजा हो जाती है। कुछ ऐसे ही थे हमारे वो दिन। पर आज देखता हूँ कि मेरे कॉलोनी के लडक़े कहीं नही जाते।हाँ गली के नुक्कड पर, चौराहे पर जरूर खडे मिल जाते हैं। वहाँ वे प्रतिदिन बिना नागा के जाते हैं। पता क्यूँ ? चलो मैं बताता हूँ वो इसलिए कि उनके जीवन जीने का टेस्ट बदल गया है। उन्हे अब खेलने में मजा नहीं आता। बल्कि उन्हें चौराहों पर खडे होकर फालतू की बातें और वहाँ से गुजरने वाली लडकियों को देखना और मौका पाकर उन्हें तंग करना अच्छा लगता है। अब उनके जीवन का टेस्ट इसमें है। और हाँ एक और जादू की चीज के बारे में तो बताना ही भूल गया होता। तो सुनो वो जादू की चीज है मोबाइल फोन। क्या बात है? आज कल हर किसी लडक़े के जेब में एक से एक बेहतरीन फीचर युक्त मोबाइल आपको मिल जाएगा। भले ही बंदा कुछ काम धंधा नहीं करता हो पर मोबाइल का खर्चा तो निकाल ही लेता है। आपको क्या लगता है ये मोबाइल पर थोड़ा बहुत खर्च करते हैं। अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो आप गलत हैं, कभी-कभी तो इनके मोबाइल का खर्चा आपके मोबाइल से बहुत अधिक आता है। क्यों? घण्टों मोबाइल पर जो चिपके रहते हैं, न नींद आती है, न भूख लगती है बस मोबाइल मोबाइल खेेलते रहते हैं। जब कभी अगर वे मैदान में भूले भटके पहुंच भी जाये तो यहां भी उनका मोबाइल पीछा नहीं छोड़ता। अब आप क्या सोचने लगे? बीच पिच पर वीरेन्द्र सहवाग की तरह उनकी माँ का भी फोन आता है। फोन तो आता है पर उनकी माँ का नहीं, उनकी मा-सूका का। वो भी ऐसी मासूका का जिसे अभी अपनी नाक पोंछना भी नहीं आता। खैर मैं तो सोच-सोच कर थक गया। अब आप ही सोचो मेरी कॉलोने के इन लडक़ों का क्या होगा? अरे हाँ यहकाथा सिर्फ मेरे कॉलोनी के लडक़ों की नहीं है, सर्वव्यापी है। जरा गौर से देखो अपने आस-पास। प्रयास करो उन्हें कबड्डी, हॉकी, फुटबाल के मैदान ले जाने का, नहीं तो कम से कम क्रिकेट के मैदान में ले जाकर तो खडा ही कर दो। क्योकि इनका खेलना जरूरी है।
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